मां की चिट्ठी।
आज इस 5जी के जमाने में भी अरसे बाद मा का चिट्ठी मिला, जिस मां से कभी घंटो बातें हुआ करती थी,जो सुबह में सब्जी में जीरा से छौंक लगाईं है या पंचफोरन से शुरू कर शाम को आखिरी बर्तन धुलने तक बताती थीं,कहती थी कि आलू का भुजिया जीरा का फोरन डाल कर बनाए थे,तुम घर से दूर ना होती तो तुम भी खा लेती,तुम्हे बहुत पसंद है न तिकोने पराठा के साथ।सब्जी में सरसो का तेल नहीं होने से अचार का तेल डालने तक की बात किया करती थीं,कहती थी जानती हो आज तेल खत्म हो गया था तो अचार वाला तेल ही डाल कर सब्जी बना दी,तुम्हारी दादी को अच्छा नहीं लग रहा था लेकिन तुम्हारे पापा खूब तारीफ कर रहे थे।उनका जाने कितने प्रकाश वर्ष बाद चिट्ठी आया।पढ़कर खुशी भी थी और गुस्सा भी,खुशी ये की चिट्ठी ही सही बात तो हो पाई,गुस्सा इस बात का की हम मां कि बातों को मान लिए होते,मना लिए होते खुद को,लेकिन कैसे मनाती खुद को, कैसे ना तोड़ती उन रूढ़ियों को जिसकी जड़ें मजबूत तो है लेकिन हमारे किसी काम की नहीं, हमारे मतलब कि नहीं।नानी डॉक्टर थी,मां भी डॉक्टर है हमारी,उनकी दिल की इच्छा थी कि हम भी डॉक्टर बने,लेकिन हमारा मन कभी नहीं रहा,हमें शिक्षिका बनना पसंद था और हम बने भी।सौभाग्यवश उस स्कूल में जिसमें हमने खुद को सींचते हुए देखा।कैसे बताऊं कि मै कितनी खुश हूं अपने काम से, खुद से….
ये हमारे जिंदगी के सबसे खूबसूरत अनुभवों में एक है।खुद को बहुत ही सौभाग्यशाली मानती हूं कि जिसे यह मौका मिला,अपने सारे पुरानी यादों को जीवंत करने का,उस बचपन के बचपना को फिर से जीने का,उस सारी कवायदों को जिसे कभी खुद किया हो और अब उन चीज़ों को फिर से स्लो मोशन सिनेमा के भांति अपने आंखो से रूबरू करने का।उन सारी यादों को अगर हम अपनी आंखों से थोड़ा भी लिख पाएं तो क्लास के गेट पर पहुंचती हूं तो बच्चों के उन सुरीली आवाज़ों कि चहचहाट और क्लास के अंदर जाते ही उनका मौन,जब बोर्ड के बस पड़े पोडियम पर खड़ा हो हम क्लास को देखते है तो बांए तरफ लड़कियां और दाहिने तरफ लड़के मानो हमसे ये पूछ रहे होते है की मैम,आप किधर बैठती थीं,जब हम पिछले क्लास के होमवर्क के बारे में पूछते हैं तब कुछ बच्चे जो कर के आए होते है,हमसे नजर मिला रहे होते है,जो कर के नहीं आया होता है वह बच्चा नज़र चुरा रहा होता है और इस तरह हम उनको समझ पाते है की कौन कर के आया कौन नहीं।हमे खुद को इनके चेहरे छिपाने के हरकतों से कभी खुद ना करके जाने वाला दिन तुरंत आंखो के आगे छा जाता है।जब हम किसी बच्चे से पूछते है अरे!!कलम है क्या तुम्हारे पास और वह बच्चा मानो किसी सेलेब्रिटी की भांति हमें कलम देने आता है कि मैम ने हमसे कलम मांगा है,जब हम कहते हैं की अरे!!कोई साथ अा जाओ स्टाफ रूम तक,कॉपी चेक हो चुका है लेते आओ,तब बच्चे मानो किसी मंत्रालय के होड़ में दौड़ रहे होते हैं कि हम जाएं तो हम जाएं, तब हमें अपने दिनों के लड़के – लड़कियों का चेहरा याद आता है कि ये था जो हमेशा कूद कर जाता था,क्लास रूम के बाहर जब हम किसी बच्चे को बाहर कॉरिडोर में खडा करते हैं तब मुझे अपने समय के कुख्यातों की याद आती है,जब कॉरिडोर से चलते हुए कहीं जा रही होती हूं और दूसरे क्लास का हमरा कोई फेवरेट बच्चा क्लास के बाहर पनिशमेंट के तौर पर बाहर खड़ा रहता है तब हमें देख अपनी शक्ल चुराता है की कहीं मैम देंख न लें वरना सारा इंप्रेशन का बेड़ा गरक़ हो जाएगा,और ये देख हम उस खूबसूरत पल को परिभाषित करने की कोशिश करते हैं लेकिन ये खूबसूरती परिभाषा के परे हो जाता है,जब हम किसी बच्चे को कहते हैं की हाथ बाहर करो और डस्टर मारने के लिए ऊपर उठाती हूं तब उसके आंखों के पुतलियों का कम्पन और चेहरे का सिकुड़न एक बार जरूर ही मोहित करता है कि छोड़ देते हैं लेकिन अपने कर्तव्यनिष्ठा का पालन करते हुए मजबूरी बस खुद को मजबूत करके मारना ही पड़ता है,कॉरिडोर की रेलिंग से जब हम बाहर कैंपस में देखते हैं की कोई बच्चा एकदम मस्ताना चाल चलते हुए अा रहा है फिर हम सोचते हैं की ये जब बड़ा हो तो इसकी चाल ऐसे ही बनी रहें जो शायद हो नहीं पाता है,कभी यह भी खयाल आता है कि यार, ये सारी चीज़ें यही रुक जाती।कभी खुद के बारे में सोचती हूं की पीछे जा कर ये वाली हरकत फिर से कर आते,ये तो हम किए ही नहीं,जब हम अपने समय की किसी हरकत को किसी बच्चे के द्वारा करते देखती हूं तो हमारे चेहरे पर एक अप्रतिम मुस्कान छा जाता है।और भी कितने अनगिनत संस्मरणों की साक्षी बन खुद को खुद से जीवंत करती हूं।और ये सारे संस्मरण को परिभाषित कर पाना अभी आसान नहीं हो पा रहा है।
खुश हूं खुद से फैसला लेकर साथ ही दुःखी भी हूं मां के फैसलों को ना मानने से हुए घाटे को लेकर।बस इतना ही है कहना और कहूं भी क्या!!!